कुषाण राजवंश - विकिपीडिया
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{{Infobox Former Country
|native_name = Κυϸανο (बैक्ट्रियन भाषा)
कुषाण साम्राज्य (खरोष्ठ लिपी )
Βασιλεία Κοσσανῶν (ग्रीक)
|conventional_long_name =
|common_name = कुषाण
|continent = एशिया
|region = मध्य एशिया
दक्षिण एशिया
|country = अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत
|era = Classical Antiquity
|status = Nomadic empire
|event_start = Kujula Kadphises unites Yuezhi tribes into a confederation
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|event_end = Subjugated by the Sasanians, Guptas and Hepthalites[1]
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| p1 = Indo-Parthian Kingdom
| p2 = Indo-Scythians
|s1 = Sasanian Empire
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|s2 = Gupta Empire
|s3 = Hephthalite Empire
|s4 = Khasa kingdom
|s5 = Nagvanshi dynasty
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|image_map_caption = Kushan territories (full line) and maximum extent of Kushan dominions under Kanishka the Great (dotted line), according to the Rabatak inscription.[2]
|capital = Bagram बगराम ([[Ancient काशी)
पेशावर
Taxila
मथुरा (Mathurā)
|common_languages = Greek (official until ca. 127)[3]
Bactrian[4] (official from ca. 127)
Unofficial regional languages:
Sogdian, Chorasmian, Tocharian, Saka dialects, Prakrit
Liturgical language:
pali
|religion Buddhism[5]
Bactrian religion
Zoroastrianism[6]
|currency = Kushan drachma
|government_type = राजतन्त्र
|leader1 = Kujula Kadphises
|year_leader1 = 30–80
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|title_leader = सम्राट
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|today = Afghanistan
China
Kyrgyzstan
India
Nepal
Pakistan
Tajikistan
Nepal
Uzbekistan
Turkmenistan
}}
कुषाण कायस्थ समराजय हिंदू प्राचीन भारत शासक वर्ग के राजवंशों में से एक था। कुषाण वंश के संस्थापक कुजुल कडफिसेस था। कुछ इतिहासकार इस वंश को चीन से आए युची या युएझ़ी लोगों के मूल का मानते हैं। सम्राट कनिष्क भारत में आकर यहां की बौद्ध संस्कृति का हिस्सा बन गए भारत में सर्वप्रथम भगवान बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण कुषाण काल में ही हुआ इसमें गंधार व मथुरा शिल्पकला का उदय कुषाण काल में ही हुआ ।
कुषाण वंश मौर्योत्तरकालीन भारत का पहला ऐसा साम्राज्य था, जिसका प्रभाव
सुदूर मध्य एशिया, ईरान, अफगानिस्तान एवं पाकिस्तान तक विस्तृत था। यह
साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष के समय तत्कालीन विश्व के तीन बड़े साम्राज्य- रोम,पार्थिया एवं चीन के समकक्ष था। इनके वर्तमान प्रतिनिधि गुर्जर हैं|
कुषाण राजवंश के विषय में जानकारी के महत्त्वपूर्ण स्रोतों में चीनी स्रोतों का स्थान प्रथम है। चीनी स्रोतों में यू-ची कबीले का चीन से भारत की ओर प्रस्थान का स्पष्ट उल्लेख है। इन स्रोतों में History of the first Han Dynasty नामक कृति अधिक महत्त्वपूर्ण हैं इस पुस्तक के प्रथम भाग की रचना 'पान - कू' ने 'त्स - येन - हानशकू (History of the first Han Dynasty) नाम से की। इसमें 206 ई.पू. से लेकर 24 ई.पू. तक के इतिहास का उल्लेख मिलता है। पुस्तक के द्वितीय भाग की रचना 'फान-ये' ने 'हाऊ-हान-शू' (Analysis of Latter Han Dynasty) नाम से की थी। इसमें 25 से 125 ई. तक का इतिहास मिलता है। इसके अतिरिक्त नागार्जुन के 'माध्यमिक सूत्र', अश्वघोष के 'बुद्धचरित' एवं चीनी यात्री हेनसांग से भी कुषाण वंश तथा कनिष्क के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
कुषाण: यू-ची कबीले ने शकों से 'ताहिआ' क्षेत्र को जीत लिया। चीन के इतिहासकार स्यू - माचियन का मानना है कि यू-ची कबीले में कुई-शुआंग (कुषाण) सर्वाधिक शक्तिशाली थे। इस कबीले के सरदार कुजुल कडफिसेस ने पांच अन्य कबायली समुदायों को अपने नेतृत्व में संगठित कर उत्तर के पर्वतों को पार करता हुआ भारतीय उपमहाद्वीप की सीमा में प्रवेश किया। यहां पहुंच कर इस संगठन ने किसी क हरमोयस नाम के व्यक्ति को हरा कर काबुल और कश्मीर पर अपने राज्य की स्थापना की। कुजुल- कडफिसेस द्वारा जारी किए गए प्रारम्भिक सिक्कों के एक तरफ अन्तिम यूनानी राजा हरमोयस और दूसरी तरफ उसकी स्वयं की आकृति खुदी मिली है। कुजुल ने केवल तांबे के सिक्के ही जारी करवाये थे। इसके बाद के सिक्कों में कुछ पर 'महाराजाधिराज' एवं कुछ पर 'धर्मथिदस' एवं 'धर्मथित' खुदा हुआ मिला है।
कुजुल का शासन काल 15 ई० 65 ई0 के बीच माना जाता है। त लगभग 80 वर्ष की अवस्था में कुजुल की मृत्यु हुई। सर्वप्रथम विम कडफिसस के समय में ही भारत में कुषाण सत्ता स्थापित हुई
कुजुल- कडफिसेस के बाद उसका पुत्र विम कडफिसेस उत्तराधिकारी बना। चीनी ग्रंथ 'हाऊ-हान-शू' से यह अनुमान लगाया जाता है कि विम कडफिसेस ने 'तिएन-चू' (सिंधु नदी पार तक्षशिला एवं पंजाब के क्षेत्र) को विजित किया। कडफिसेस ने एवं तांबे के सिक्के जारी करवाएं। भारतीय प्रभाव से प्रभावित इन सिक्कों के एक ओर यूनानी लिपि एवं दूसरी और खरोष्ठी लिपि लिखी थी। इसने अपने सिक्कों पर 'महाराज', 'राजाधिराज', 'महेश्वर सर्वलोकेश्वरसी,आदि उपाधि धारण की। कुछ सिक्के जिन पर बैल एवं त्रिशूल की आकृतियां बनी है, भारत में सर्वप्रथम सोने के सिक्के विम कडफिसेस ने ही चलाए। प्लिनी के अनुसार विम के समय में भारत के रोम एवं चीन के व्यापारिक संबंध थे।
इसका शासनकाल संभवत 65 से 78 ईसवी तक था। विम कडफिसेस कैडफिसेस द्वितीय के समय से भी जाना जाता था।
कनिष्क: दो कडफिसेस शासकों के बाद कुषाण शासक की बागडोर कनिष्क ने संभाला। निसंदेश कुषाण शासकों में कनिष्क सबसे योग्य एवं महान था। इसका काल कुषाण शक्ति के उत्कर्ष का काल था। कनिष्क का राज्यारोहण के विषय में काफी विवाद है, फिर भी 78 ईसवी से 144 ईसवी मध्य के किसी समय को माना जाता है।
कनिष्क के राज्यारोहण के संबंध में सर्वाधिक मान्य तिथि शक् सम्यत्, जो कुछ 78 ई० में आरंभ हुआ, को राज्यारोहण के लिए उपयुक्त माना जाता है।। विद्वान् राज्यारोहण के उपलक्ष्य में शक सम्वत् के प्रवर्त्तन का श्रेय भी कनिष्क को प्रदान करते हैं। कनिष्क के सिंहसनारूढ़ होने के समय कुषाण साम्राज्य में अफगानिस्तान, सिंध का भाग एवं बैक्ट्रिया तथा पार्थिया सम्मिलित था। भारत में कुषाण राज्य दक्षिण में सांची तथा पूर्व में मगध तक विस्तृत था। कनिष्क ने पुरुषपुर (वैशावर) को अपनी राजधानी बनाया जबकि इसके राज्य की दूसरी राजधानी मथुरा थी। कनिष्क ने पेशावर में एक स्तूप और विहार का निर्माण कराया और उसमें कुछ के अस्थि - अवशेषों को प्रतिष्ठित कराया। इस स्तूप की खुदाई से बुद्ध, एवं कनिष्क की मूर्तियां मिली हैं।
‘श्री धर्मपिटक निदान सूत्र' के चीनी अनुवाद से ज्ञात होता है कि कनिष्क ने पाटलिपुत्र (हो० आन्बू) पर आक्रमण कर वहां के शासक को हरा कर हर्जाने के रूप में अश्वघोष जैसे प्रसिद्ध विद्वान, बुद्ध का भिक्षापात्र तथा एक अनोखा कुक्कुट प्राप्त किया। तिब्बती ग्रंथों में कनिष्क के सोकद (साकेत, फैजाबाद) पर आक्रमण एवं विजय का उल्लेख मिलता है। चीनी ग्रंथ यू-यंग-सत्सू, मुजमलुत-तबारीख, तहकीकाते हिन्द एवं पेरिप्लस ऑफ द एरीथ्रियन सी से कनिष्क के दक्षिण भारत के अभियानों के बारे में जानकारी मिलती है। कश्मीर विजय का उल्लेख राजतरंगिणी ग्रंथ में मिलता है। यहां पर कनिष्क ने 'कनिष्कपुर' नाम का एक नगर बसाया। कनिष्क की महत्त्वपूर्ण विजय चीन की थी जहां उसने तत्कालीन 'हन राजवंश' के सेनापति पानन्चाओ की विशाल सेना को परास्त किया। मध्य एशिया के कुछ प्रदेश जैसे यारकन्द, काशगर, खोतान के भी कनिष्क के अधिकार में आ जाने के बाद यह विशाल साम्राज्य गंगा, सिंधु एवं ऑक्सस की घाटियों तक फैल गया। बिहार के कई स्थानों जैसे-तामलुक (ताम्रलिप्ति) तथा महास्थान से कनिष्क के सिक्के मिलते हैं। महास्थान में पायी गयी सोने की मुद्रा में कनिष्क की खड़ी हुई मूर्ति अंकित है जबकि तांबे के सिक्के पर कनिष्क को वेदि पर बलि करते दिखाया गया है। कनिष्क के रावातक अभिलेख से उसके साम्राज्य का पूर्वी विस्तार चम्पा तक होने का उल्लेख मिलता है। मथुरा जिले में कनिष्क की एक प्रतिमा मिली है जिसमें उसे खड़ा हुआ दिखाया गया है। राजा ने घुटने तक चोंगा पहना हुआ है तथा पैरों में भारी बूट। कनिष्क की एक मस्तक रहित मूर्ति मथुरा जिले में माट नामक स्थान से प्राप्त हुई है। लेखों में कनिष्क को 'महाराजाधिराज' कहा गया है। कनिष्क के दरबार में आयुर्वेद के प्रसिद्ध विद्वान चरक निवास करते थे। वे कनिष्क के राजवैद्य थे। उन्होंने 'चरक संहिता' की रचना की थी। कुषाण साम्राज्य
तत्कालीन तीन महत्त्वपूर्ण साम्राज्य पूर्व में चीन, पश्चिम में पार्थियन एवं रोम साम्राज्य के मध्य में स्थित था। चूंकि पार्थियनों के रोम से सम्बन्ध अच्छे नहीं थे इसलिए चीन से व्यापार करने के लिए रोम को कुषाणों से मधुर सम्बन्ध बनाने पड़े। यह व्यापार महान 'सिल्कमार्ग' तथा 'रेशममार्ग' से सम्पन्न होता था। यह मार्ग तीन हिस्सों में बंटा था-(i) कैस्पीयन सागर होते हुए, (ii) मर्व से फरात नदी होते हुए नील सागर पर स्थित बन्दरगाह तथा (iii) लाल सागर से होकर जाता था। प्रथम शताब्दी में भारत और रोम के बीच की मधुर सम्बन्ध का उल्लेख 'पेरिप्लस
कनिष्क के राज्यारोहण के संबंध में सर्वाधिक मान्य तिथि शक् सम्यत्, जो कुछ 78 ई० में आरंभ हुआ, को राज्यारोहण के लिए उपयुक्त माना जाता है।। विद्वान् राज्यारोहण के उपलक्ष्य में शक सम्वत् के प्रवर्त्तन का श्रेय भी कनिष्क को प्रदान करते हैं। कनिष्क के सिंहसनारूढ़ होने के समय कुषाण साम्राज्य में अफगानिस्तान, सिंध का भाग एवं बैक्ट्रिया तथा पार्थिया सम्मिलित था। भारत में कुषाण राज्य दक्षिण में सांची तथा पूर्व में मगध तक विस्तृत था। कनिष्क ने पुरुषपुर (वैशावर) को अपनी राजधानी बनाया जबकि इसके राज्य की दूसरी राजधानी मथुरा थी। कनिष्क ने पेशावर में एक स्तूप और विहार का निर्माण कराया और उसमें कुछ के अस्थि - अवशेषों को प्रतिष्ठित कराया। इस स्तूप की खुदाई से बुद्ध, इन्निष् की मूर्तियां मिली हैं।
‘श्री धर्मपिटक निदान सूत्र' के चीनी अनुवाद से ज्ञात होता है कि कनिष्क ने पाटलिपुत्र (हो० आन्बू) पर आक्रमण कर वहां के शासक को हरा कर हर्जाने के रूप में अश्वघोष जैसे प्रसिद्ध विद्वान, बुद्ध का भिक्षापात्र तथा एक अनोखा कुक्कुट प्राप्त किया। तिब्बती ग्रंथों में कनिष्क के सोकद (साकेत, फैजाबाद) पर आक्रमण एवं विजय का उल्लेख मिलता है। चीनी ग्रंथ यू-यंग-सत्सू, मुजमलुत-तबारीख, तहकीकाते हिन्द एवं पेरिप्लस ऑफ द एरीथ्रियन सी से कनिष्क के दक्षिण भारत के अभियानों के बारे में जानकारी मिलती है। कश्मीर विजय का उल्लेख राजतरंगिणी ग्रंथ में मिलता है। यहां पर कनिष्क ने 'कनिष्कपुर' नाम का एक नगर बसाया। कनिष्क की महत्त्वपूर्ण विजय चीन की थी जहां उसने तत्कालीन 'हन राजवंश' के सेनापति पानन्चाओ की विशाल सेना को परास्त किया। मध्य एशिया के कुछ प्रदेश जैसे यारकन्द, काशगर, खोतान के भी कनिष्क के अधिकार में आ जाने के बाद यह विशाल साम्राज्य गंगा, सिंधु एवं ऑक्सस की घाटियों तक फैल गया। बिहार के कई स्थानों जैसे-तामलुक (ताम्रलिप्ति) तथा महास्थान से कनिष्क के सिक्के मिलते हैं। महास्थान में पायी गयी सोने की मुद्रा में कनिष्क की खड़ी हुई मूर्ति अंकित है जबकि तांबे के सिक्के पर कनिष्क को वेदि पर बलि करते दिखाया गया है। कनिष्क के रावातक अभिलेख से उसके साम्राज्य का पूर्वी विस्तार चम्पा तक होने का उल्लेख मिलता है। मथुरा जिले में कनिष्क की एक प्रतिमा मिली है जिसमें उसे खड़ा हुआ दिखाया गया है। राजा ने घुटने तक चोंगा पहना हुआ है तथा पैरों में भारी बूट। कनिष्क की एक मस्तक रहित मूर्ति मथुरा जिले में माट नामक स्थान से प्राप्त हुई है। लेखों में कनिष्क को 'महाराजाधिराज देवपुत्र' कहा गया है। जो उसके दैवीय उत्पत्ति में विश्वास को प्रकट करता है। कनिष्क के दरबार में आयुर्वेद के प्रसिद्ध विद्वान चरक निवास करते थे। वे कनिष्क के राजवैद्य थे। उन्होंने 'चरक संहिता' की रचना की थी। कुषाण साम्राज्य
तत्कालीन तीन महत्त्वपूर्ण साम्राज्य पूर्व में चीन, पश्चिम में पार्थियन एवं रोम साम्राज्य के मध्य में स्थित था। चूंकि पार्थियनों के रोम से सम्बन्ध अच्छे नहीं थे इसलिए चीन से व्यापार करने के लिए रोम को कुषाणों से मधुर सम्बन्ध बनाने पड़े। यह व्यापार महान 'सिल्कमार्ग' तथा 'रेशममार्ग' से सम्पन्न होता था। यह मार्ग तीन हिस्सों में बंटा था-(i) कैस्पीयन सागर होते हुए, (ii) मर्व से फरात नदी होते हुए नील सागर पर स्थित बन्दरगाह तथा (iii) लाल सागर से होकर जाता था। प्रथम शताब्दी में भारत और रोम के बीच की मधुर सम्बन्ध का उल्लेख 'पेरिप्लस
का वर्णन है। अश्वघोष का ग्रंथ सारिपुत्र प्रकरण नौ अंकों का एक नाटक ग्रंथ हैं। जिसमें बुद्ध के शिष्य शारिपुत्र के बौद्ध धर्म में दीक्षित होने का नाटकीय उल्लेख है। इस ग्रंथ की तुलना वाल्मीकि के रामायण से की जाती है। कनिष्क के दरबार की ही एक अन्य विभूति नागार्जुन दार्शनिक ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक भी था। इसकी तुलना मार्टिन लूथर से की जाती है। इसे 'भारत का आइन्सटाइन' कहा गया है। नागार्जुन ने अपनी पुस्तक 'माध्यमिक सूत्र' में सापेक्षता के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया। वसुमित्र ने चौथी बौद्ध संगीति में बौद्ध धर्म के विश्वकोष 'महाविभाषासूत्र' की रचना की। इस ग्रंथ को 'बौद्ध धर्म का विश्वकोष' कहा जाता है। कनिष्क के दरबार के एक और रत्न चिकित्सक 'चरक' ने औषधि पर 'चरकसंहिता' की रचना की। चरक कनिष्क का राजवैद्य था। अन्य विद्वानों में पार्श्व, वसुमित्र, मतृवेट, संघरक्षक आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इसमें संघरस कनिष्क के पुरोहित थे। विभाषाशास्त्र की रचना वसुमित्र ने की थी। कुषाणों ने भारत में बसकर यहाँ की संस्कृति को आत्मसात् किया। भारतीय संस्कृति यूनानी संस्कृति से प्रभावित थी। कुषाण शासकों ने ‘देवपुत्र' उपाधि धारण की। कनिष्क के समय में ही वात्सायायन -का कामसूत्र, भारवि की स्वप्नवासवदत्ता की रचना हुई। ‘स्वप्नवासवदत्ता' को संभवतः भारत का प्रथम सम्पूर्ण नाटक माना गया है।
कनिष्क के दरबार में संरक्षण प्राप्त विद्वान
1. अश्वघोष 3. वसुमित्र
5. पार्श्व
2. नागार्जुन
4. चरक
कनिष्क की मृत्यु पश्चात् कुषाण साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया। कनिष्क के बाद उसका उत्तराधिकारी वसिष्क राजगद्दी पर बैठा। यह मथुरा एवं समीपवर्ती क्षेत्रों में शासन करता था। वसिष्क के बाद हुविष्क राजसिंहासन पर बैठा। इसने करीब 30 वर्ष तक शासन किया हुविष्क के समय (106-138 ई०) में कुषाण सत्ता का केन्द्र पेशावर के स्थान पर मथुरा हो गया। हुविष्क द्वारा जारी किए गए सोने और तांबे के सिक्कों पर बुद्ध, तुमा, स्कंद, कुमार, विशाख,आदि के चित्र मिलते हैं। हुविष्क के बाद वासुदेव प्रथम शासक हुआ। वासुदेव के शासन काल में उत्तर-पश्चिम भाग का फारस के ससानी राजवंश के कारण हास प्रारम्भ हो गया। कुषाणों ने सर्वप्रथम भारत में शुद्ध स्वर्ण मुद्राएं निर्मित करायी। कुषाण राजाओं ने सोना और तांबे के सिक्कों का प्रवर्तन किया था। कुजुल कैडफिसस ने ताम्र मुद्रा चलाई, विम कैडफिसस की स्वर्ण एवं ता एवं कांस्य मुद्रा भी मिलती है। हुविष्क की स्वर्ण, ताम्र एवं रजत मुद्रा मिलती है तथा
वासुदेव ने स्वर्ण एवं ताम्र मुद्रा अंकित कराई। योग्य उत्तराधिकारी के अभाव के कारण यमुना के तराई वाले भाग पर नाग लोगों ने अधिकार कर लिया। इस वंश के शासक मथुरा, पद्मावती एवं मध्य भारत के कई स्थानों पर शासन करते थे। साकेत, प्रयाग एवं मगध को गुप्त राजाओं ने अपने अधिकार में कर लिया। नवीन राजवंशों के उदय ने ही कुषाणों के विनाश में सहयोग किया।सर्वाधिक प्रामाणिकता के आधार पर कुषाण वन्श को पश्चिम् चीन से आया हुआ माना गया है। लगभग दूसरी शताब्दी ईपू के मध्य में सीमांत चीन में युएझ़ी नामक कबीलों की एक जाति हुआ करती थी जो कि खानाबदोशों की तरह जीवन व्यतीत किया करती थी। इसका सामना ह्युगनु कबीलों से हुआ जिसने इन्हें इनके क्षेत्र से खदेड़ दिया। ह्युगनु के राजा ने ह्यूची के राजा की हत्या कर दी। ह्यूची राजा की रानी के नेतृत्व में ह्यूची वहां से ये पश्चिम दिशा में नयी जगह की तलाश में चले। रास्ते में ईली नदी के तट पर इनका सामना व्ह्सुन नामक कबीलों से हुआ। व्ह्सुन इनके भारी संख्या के सामने टिक न सके और परास्त हुए। ह्यूची ने उनके उपर अपना अधिकार कर लिया। यहां से ह्यूची दो भागों में बंट गये, ह्यूची का जो भाग यहां रुक गया वो लघु ह्यूची कहलाया और जो भाग यहां से और पश्चिम दिशा में बढा वो महान ह्यूची कहलाया। महान ह्यूची का सामना शकों से भी हुआ। शकों को इन्होंने परास्त कर दिया और वे नये निवासों की तलाश में उत्तर के दर्रों से भारत आ गये। ह्यूची पश्चिम दिशा में चलते हुए अकसास नदी की घाटी में पहुँचे और वहां के शान्तिप्रिय निवासिओं पर अपना अधिकार कर लिया। सम्भवतः इनका अधिकार बैक्ट्रिया पर भी रहा होगा। इस क्ष्रेत्र में वे लगभग १० वर्ष ईपू तक शान्ति से रहे।
चीनी लेखक फान-ये ने लिखा है कि यहां पर महान ह्यूची ५ हिस्सों में विभक्त हो गये - स्यूमी, कुई-शुआंग, सुआग्म, ,। बाद में कुई-शुआंग ने क्यु-तिसी-क्यो के नेतृत्व में अन्य चार भागों पर विजय पा लिया और क्यु-तिसी-क्यो को राजा बना दिया गया। क्यु-तिसी-क्यो ने करीब ८० साल तक शासन किया। उसके बाद उसके पुत्र येन-काओ-ट्चेन ने शासन सम्भाला। उसने भारतीय प्रान्त तक्षशिला पर विजय प्राप्त किया। चीनी साहित्य में ऐसा विवरण मिलता है कि, येन-काओ-ट्चेन ने ह्येन-चाओ (चीनी भाषा में जिसका अभिप्राय है - बड़ी नदी के किनारे का प्रदेश जो सम्भवतः तक्षशिला ही रहा होगा)। यहां से कुई-शुआंग की क्षमता बहुत बढ़ गयी और कालान्तर में उन्हें कुषाण/कुस या खस कहा गया।
यह अनुभाग खाली है, अर्थात पर्याप्त रूप से विस्तृत नहीं है या अधूरा है। आपकी सहायता का स्वागत है!